निकल पड़ा था एक सफ़र पर मैं
मुंतज़िर मारवाड़ी
निकल पड़ा था एक सफ़र पर मैं
एक शख़्श की तलाश मे
राहो से अंजान मे,
मन्जिल के नशे मे मैं
चलता रहा कोसो मे,
एक जान की तलाश मे
जिसके नाम का पता नहीं
ठिकाने से बेख़बर था मैं
एक आश दिल मे लिये
खुद के वादे मे बँधे
ढूढ़ता रहा उसे
हर जरे हर कुचे मे मैं
ढूँढने गया उसे ,
हर शहर, हर मकान मे
पूछा हर शख़्श से ,
मिला क्या वो उस शख़्श से
शहर अब ख़त्म हुए
मकान भी कुछ कम रहे
आश अब वो टूट रही
साँस भी अब उखड रही
आज ज़िंदगी भी……एक गुनाह सी लग रही
वो वादा भी बिखर रहा
धड़कने भी रुक रही
आज ज़िंदगी भी…. दर्द का दूसरा नाम लग रही
तारीख़े ये बदल रही
साल ये गुजर रहे
मन के खाँचो मे भी
अंधेरे अब ये बढ़ रहे
अंधेरे मे बैठा था मैं
हर जगह से हार कर
उमीदो ने हाथ छोड़ दिया
वादो ने भी मुझे मार दिया
अधमरी सी हाल मे
पहुचा आखरी शहर के आखरी मकान मे
मकान था वो जाना सा
वो शख़्श था पहचाना सा
एक उम्मीद सी फिर जाग गयी
हा ! क्षितिज के पार से एक रोशनी सी आ गयी
बैठा है अब वो मेरे सामने
हाथ मे उसकी खबर लिए
पर खुशिया धरी सी रह गयी
वो वक़्त थमा सा रह गया
जब इनकार कर
वो भी एक सितम मेरे नाम और कर गया
अब कुछ यूँ सूरत -ए-हाल है
खड़ा हू उसके द्वार पर
हाथ मे फैलाय कर
माँग रहा हू भीख मैं
मेरी जान की उसे मैं
समझाएशो का दौर है
पर कैसे उसे समझाऊँ मे
तुम मेरी आखरी उमीद हो
तुम मेरी आखरी उम्मीद हो